नागरी प्रचारिणी सभा

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नागरीप्रचारिणी के पुनरुदय से उम्मीद बंधती है

हिंदी में साहित्य, भाषा, कलाओं और संस्कृति की संस्थाओं के लोप, ध्वंस और अवमूल्यन के अभागे समय में, उनमें शायद सबसे पुरानी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा के पुनरुदय और पुनर्वास की ख़बर कई तरह से अप्रत्याशित शुभ समाचार है. एक लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद काशी के ही युवा कवि-संस्कृतिकर्मी व्योमश शुक्ल और उनके सहयोगियों ने सभा को मुक्त करने में सफलता पायी है. यह होते ही सभा के प्रकाशनों, पांडुलिपियों के संग्रह की देखभाल और उपलभ्यता आदि को लेकर नई सक्रियता सामने आई है.

यह उल्लेखनीय है कि सभा को मुक्त कराने का संघर्ष और उसे प्रासंगिक बनाने, उसकी विरासत को संवेदनशीलता और ज़िम्मेदारी से सम्हालने का काम सब काशी के लोग ही कर रहे हैं. एक शहर कैसे अपनी विरासत सम्हाल सकता है, ख़ासकर साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में, इसका यह बिरला पर प्रेरक उदाहरण है.

हिंदी समाज में, जो इस समय सुनियोजित विस्मृति की चपेट में है, हिंदी साहित्य की परंपरा, स्मृति और उत्तराधिकार को बहुत जतन से सजीव-सजग-सक्रिय करने का काम सभा ने किया था. अनेक हिंदी के गौरवग्रंथ और साहित्यकार अपनी प्रामाणिकता में हमें सभा के बहुत सावधान जतन, अनुसंधान और प्रकाशन से उपलब्ध हुए थे. हमारी अधिकतर जातीय स्मृति उस समय मौखिक और अस्थिर थी: उसे लिखित और स्थिर रूप देने का ऐतिहासिक काम सभा ने किया था. उस समय हिंदी के श्रेष्ठ आचार्य सभा ने संबद्ध थे. उन्होंने, बहुत सीमित भौतिक साधनों और सुविधाओं के बावजूद हमारी जातीय परंपरा को आकार दिया. ऐसी संस्था का पुनर्जीवन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक और सांस्कृतिक घटना है.

नई सभा का पहला प्रकाशन जो मेरे हाथ आया वह है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ का नया प्रामाणिक संस्करण. लगभग साढ़े आठ सौ पृष्ठों की इस पुस्तक को नई सभा ने कुल छह सौ रुपये के दाम पर प्रकाशित किया. उसमें दशकों से चली आ रही और लगभग अलक्षित चली गई त्रुटियों को सुधार लिया गया है, लगभग पचास पृष्ठों की अनुक्रमणिका है.

हिंदी में नई-पुरानी पुस्तकों के नए संस्करणों को, आम तौर पर, बड़ी लापरवाही से छापा जाता रहा है: इस लापरवाही का शिकार हमारे गौरवग्रंथ सबसे अधिक हुए हैं. ऐसे असावधान माहौल में यह पुस्तक बहुत साफ़-सुथरी, गहरी मेहनत और ईमानदार सावधानी का नया प्रतिमान स्थापित करती लगती है. यह उम्मीद बंधती है कि सभा के अन्य प्रकाशन भी इसी कोटि के होंगे.

यह इतिहास पहली बार पुस्तकाकार 1929 में प्रकाशित हुआ था जिसका अर्थ यह है कि नया प्रामाणिक संस्करण उसके 96 वर्ष बाद आ पाया है. आचार्य शुक्ल ने अपनी इतिहास-दृष्टि स्पष्ट करते हुए लिखा था कि ‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है. आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है.’

वह समय हिंदी आलोचना की लगभग बाल्यावस्था का था. उस समय आलोचना में ऐसी प्रखर और परिपक्व दृष्टि रखना कई अर्थों में अप्रत्याशित था. यह इतिहास निरा विवरण नहीं है: उसमें रसिकता, विश्लेषण, अवधारणा सभी संगुंफित हैं. वह शुक्ल जी की रसिकता की गाथा भी है.

ऐसा माना जाता रहा है कि शुक्ल जी ने इस इतिहास में कविताओं के जो उद्धरण दिए हैं, वे कुल मिलाकर तब तक की हिंदी कविता की एक अघोषित गोल्डन ट्रेजेरी यानी रत्न मंजूषा हैं. हमारे आग्रह पर बनारस के ही बच्चन सिंह और अवधेश प्रधान ने शुक्ल जी द्वारा उद्धृत कविताओं का एक संचयन तैयार किया था जो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की ओर से ‘कविता का शुक्ल पक्ष’ नाम से प्रकाशित हुआ था.

ऐसा माना जाता रहा है कि शुक्ल जी अपने समवर्ती छायावाद के प्रति सहानुभूतिशील नहीं थे. पर उन्होंने गंभीरता से प्रसाद-पन्त-निराला की कविता का विश्लेषण किया है.

‘कामायनी’ के बारे में वे कहते हैं कि ‘जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रकृति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है’ और कि ‘यदि हम इस विशद काव्य की अंतयोजना पर ध्यान न दें, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव न ढूंढें… तो हमारे सामने बड़ी ही रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यन्त मनोरम पद्धति आती है.’

पन्त के काव्य का शुक्ल जी ने विस्तृत विवेचन किया है. एक जगह वे कहते हैं कि ‘शहद चाटनेवालों और गुलाब की रूह सूंघनेवालों को चाहे इसमें कुछ न मिले, पर हमें तो इसके भीतर चराचर के साथ मनुष्य के संबंध की बड़ी प्यारी भावना मिलती है.’

निराला के बारे में उनका मत है: ‘बहु-वस्तु-स्पर्शिनी प्रतिभा निरालाजी में है. ‘अज्ञात प्रिय’ की ओर इशारा करने के अतिरिक्त इन्होंने जगत् के अनेक प्रस्तुत रूपों और व्यापारों को भी अपनी सरस भावनाओं के रंग में देखा है.’

शुक्ल जी ने कबीर के बारे में लिखा है कि ‘कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं. मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्‍त न हुआ.’

रीतिकाल पर लिखते हुए शुक्ल जी ने टिप्पणी की है: ‘इन रीति-ग्रंथों के कर्ता भावुक सहृदय और निपुण कवि थे. उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना.’

एक कवि पजनेस के बारे में यह कहते हुए कि उनका शब्दचमत्कार पर विशेष ध्यान रहता था ‘जिससे कहीं-कहीं भद्दापन आ जाता था’, यह पद्य नमूने के तौर पर दिया है:

छहरे छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै, उमग उजेरो महाओज उजबक सी
कवि पजनेस कंज-मंजुल-मुखी के गात, उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी..
फैली दीपदीप दीप-दीपति दिपति जाकी, दीपमालिका की रही दीपति दबक सी
परत न ताब लखि मुख महताब जब, निकसी सिताब आफताब की भभक सी.

हर्षवर्द्धन के नए चित्र

एस. हर्षवर्द्धन अपनी पीढ़ी के ऐसे चित्रकार हैं जिन्होंने चित्रकला का बाक़ायदा प्रशिक्षण नहीं लिया. उनका तकनीकी प्रशिक्षण तो रासायनिक इंजीनियरिंग में बिट्स पिलानी में हुआ था और वे बरसों तक किसी अंतरराष्ट्रीय कंपनी में एक बड़े ओहदे पर काम करते थे. फिर उनका मन उचटा और उन्होंने अपने चित्रकार-पिता जगदीश स्वामीनाथन का रास्ता पकड़ा और चित्रकार हो गए. वे शुरू से ही आकृति-मूलक या आख्यानपरक वृत्तियों से दूर रहे हैं. उनके नए चित्रों की एक मनोरम प्रदर्शनी इन दिनों दिल्ली की आर्ट एलाइव गैलरी में चल रही है.

ये नए चित्र रंगों के विस्फोट के चित्र हैं. निस्संकोच, उद्धत, उदग्र रंग. अभिव्यक्ति या किसी अनुभव या भाव के वाहक के रूप में: इन सबसे मुक्त, अपने आप में, आत्मप्रतिष्ठ रंग. रंगों की ऐसी प्राथमिकता इन दिनों कम नज़र आती है और स्वयं हर्ष के यहां यह अनोखी है. स्वछंद तैरते हुए ज्यामितिक आकार, स्वायत्त ज्यामिति और अर्थ के बोझ से मुक्त.

ये चित्र ऐसा स्पेस हैं जो समय के किसी अभिप्राय या बन्धन से मुक्त है: कालहीन देश. एक क़िस्म की प्रगीतात्मक स्वच्छता. ऐसी कि उसमें रहस्य भी है और वह हमें विस्मय से भर देती है. चित्रों से इन दिनों ग़ायब हो गए रहस्य और विस्मय के भावों का विनम्र पुनर्वास. ऐसी कला जो आपसे ज़्यादा कुछ कहने से संकोच करती है: वागर्थ की अल्पता.

इन चित्रों का देश कोई विजड़ित या स्थिर क्षेत्र नहीं है. उसमें स्पन्दन हैं: उसमें प्रकारों को समयहीन स्पेस में बहने-तैरने की छूट है, जिसमें लघुता और विशालता के बीच भेद घट जाता है. लघु जब-तब विशाल लगता है और विशाल कभी-कभार लघुता में संघनित हो जाता है. स्वामीनाथन की एक प्रसिद्ध धारणा याद आती है: सचाई का बिंब नहीं, बिंब की सचाई. ये चित्र दिए हुए संसार की छबियां नहीं उकेरते- वे अपना संसार खुद रचते हैं, जो दिए हुए संसार में कुछ नया जोड़ते हैं. सचाई की छबि नहीं, सचाई में कुछ इज़ाफ़ा.

ये ऐसे चित्र नहीं हैं जिन्हें एक नज़र में देखते ही उन्हें आप समझ जाएं या उनका कोई अर्थ तत्काल आपको सूझ जाए. ये चित्र न्योता देते हैं कि इन्हें थोड़ा समय निकालकर, ध्यान और धीरज से देखा जाए. वे कोई अर्थ आप पर नहीं थोपते. वे आपको अवसर देते हैं कि आप अपना कोई अर्थ रचें, निरे दर्शक बनकर न रह जाएं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)