नागरीप्रचारिणी सभा का इतिहास
“निज भाषा उन्नति अहै” की बात कहने वाले भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र अकाल के गाल में समा चुके थे । ‘सब उन्नति की मूल’ निजभाषा अर्थात् ‘हिंदी’ भारतेंदु बाबू के पूर्व लगभग 500-600 वर्षों से अपनी जड़ें जमाने में लगी थी और उसको अभिसिंचित करने तथा पल्लविन पुष्पित देखने के लिये अनेक सिद्धहस्त कवि, विद्वान्, महात्मा और संत जुटे थे । उनकी तपस्या निष्फल नहीं जा रही थी किंतु जिस गति से उनकी सफलता का सर्वतोमुखी विस्तार एवं प्रभाव होना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा था । हिंदी में उधर चंदबरदायी, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, केशव प्रभृत भाषाप्रवीण कवियों तथैव विद्यापति, बिहारी, घनानंद, देव, मतिराम चिंतामणि, पद्माकर आदि बहुविद् रचनाकुशल कलाकारों और इधर के भारतेंदु मंडल के लेखकों के रहते और इसी प्रकार पृथ्वीराज रासो, कबीर के दोहों पदों, सूरसागर, पद्मावत, रामचरित मानस आदि ग्रंथों तथा ज्ञात और अज्ञात अन्य असंख्य कवियों लेखकों के हिंदीग्रंथों के रहने के बावजूद हिंदी की मसृणता, सहज सरलता, अभिव्यक्ति की सशक्तता एवं उसकी जानदार ओजस्विता की ओर इंगित करने वाला कोई नहीं था ।
हिंदी के संघटन, संरंचन एवं उसे सर्वजनसुलभ बनाने की दिशा में लंदन की जिस फोर्ट विलियम कॉलेज ने कलकत्ता में अपना एक मुख्यालय खोलकर और उसमें ‘भाषा के पंडित’ हिंदी गद्य के पुरस्कर्ता लल्लूजी लाल, इंशा अल्ला खाँ प्रभृत विद्वानों, लेखकों और शुभचिंतकों को आसनासीन करके हिंदी भाषा तथा उसके साहित्य के संकल्पन, संरंचन, अभिवर्धन, प्रकाशन का जो काम सौंपा उससे हिंदी की गाड़ी बढ़ तो चली किंतु उससे जनमानस के मूलभावाभिव्यक्ति की शब्दयोजना, प्रकरणपटुता अंगरेजी काल के प्रवाह के प्रभाव से संश्लिष्ट रहने के कारण उस तरह की चीजें हिंदी में नहीं आ रही थीं जिसमें भारत की आत्मा, तथ्यों की प्रामाणिकता और लोकव्यवहार तथा शिक्षा के क्षेत्र की भारतीय विचारधाराओं के अनुकूल कोई परिपूर्णता प्राप्त हो सके । अब तक जो हिंदी का इतिहास लिखा लिखवाया जा रहा था उन सबमें अप्रमाणिक अंशों का अंकन विशेष रूप में अनुष्ठित होता जा रहा था । परिणामतः हिंदी की भूमि पर मनुष्यों के अभीष्ट जहाँ सुंदर और सही साहित्य के छमटगढ़ (छायादार) वृक्ष लगने चाहिए थे वहाँ पौधे तो उगाए जा रहे थे किंतु वे सबके सब हिंदी साहित्य के सुविज्ञ, मर्मज्ञ एवं विद्याबुद्धिमंडित प्रांजल रूपोद्घाटन में दक्ष व्यक्तियों के लिये अनुपयोगी सिद्ध हो रहे थे । ऐसे समय में हिंदी की भूमि को उर्वरा करने के लिये उसको उसके साहित्य का हरित परिधान प्रदान करने तथा उसकी लिपि देवनागरी लिपि के प्रचार प्रसार के लिये काशी के ये तीन नवयुवक उठ खड़े हुए, जो अपनी कर्तव्यपारायणता, वाग्विदग्धता संघटन, संयोजन क्षमता के बल पर हिंदी का वह मंदिर (नागरी प्रचारिणी सभा) स्थापित किया जिसमें आए बिना हिंदी का कोई भी पुजारी पुजारी नहीं हो सकता । उनके नाम इस प्रकार हैं—1. श्री डा. श्यामसुंदरदास 2. पं. रामनारायण मिश्र 3. श्री ठाकुर शिवकुमार सिंह ।
उक्त नागरीप्रचारिणी सभा अपने स्थापनाकाल (16 जुलाई, 1893 ई.) से ही हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार प्रसार के कार्य में दिनोंदिन अग्रणी होती रही और हिंदी के प्राचीन ग्रंथों के अन्वेषण और प्रकाशन तथा नवीन ग्रंथों के सर्जन में जुटी रही । फलतः भारत की वाणी हिंदी के भांडार के कोने-कोने को भरने के लिये उसने एक से बढ़कर एक उत्तमोत्तम ग्रंथों का प्रकाशन किया तथा उसे सार्वजनसुलभ बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए । जिससे हिंदी को उसका प्रमाणिक इतिहास ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ प्रस्तुत एवं प्रकाशित किया जो अद्यावधि और कालांतर में भी हिंदी अध्येताओं के लिये ‘सिद्धांत कौमुदी’ की तरह अप्रमेय बना रहेगा ।

इस संदर्भ में महत्वपूर्ण और हिंदी जगत् के उपजीव्य के रूप में जिन-जिन ग्रंथों तथा ग्रंथावलियों का प्रकाशन सभा ने किया उनमें प्रमुख ये हैं—
- हिंदी शब्दसागर 11 खंडों में
- हिंदी साहित्य का इतिहास
- हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास 16 खंडों में
- हिंदी व्याकरण
- हिंदी विश्वकोश-12 खंडों में
- हिंदी शब्दानुशासन
- रस मीमांसा
- भूषण ग्रंथावली
- बिहारी सतसई
- कबीर ग्रंथावली
- कृपाराम ग्रंथावली
- खुसरो की हिंदी कविता
- उर्दू काव्य की जीवनधारा
- तुलसी ग्रंथावली 4 खंडों में
- गुलेरी गरिमा ग्रंथ
- हुमायूँनामा
- चित्रावली
- जायसी ग्रंथावली
- भोंसला दरबार के हिंदी कवि, आदि आदि ।

कहने का तात्पर्य यह कि सभा हिंदी क्षेत्र में आलोचना, शोध, भाषा विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, उपन्यास, उपाख्यान, कहानी काव्य, कोश, व्याकरण, जीवन चरित, दर्शन, तर्कशास्त्र, नाटक, निबंध, पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, कला, विज्ञान, यात्रा, देशदर्शन आदि विविध विषयों पर अब तक दो हजार से ऊपर ग्रंथों का प्रकाशन करके हिंदी भांडार की श्री वृद्धि करने में परम सहायक रही है । शायद ही हिंदी की कोई कहीं शोधपरक निबंधों का प्रकाशन करने वाली सभा की मुख पत्रिका नागरीप्रचारिणी पत्रिका के समान दूसरी पत्रिका हो, जो आज 88 वर्षों से अविच्छिन्न रूप में प्रकाशित होती चली आ रही है और जिसके मालवीय, अमरनाथ झा, भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र आदि विशेषांक जहाँ हिंदी के जिज्ञासुओं के लिये परम आवश्यक हैं वहाँ हिंदी के मर्मज्ञ विद्वानों के लिये भी पठनीय और मननीय हैं । पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली सुप्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का प्रकाशनारंभ सभा के संयोजकत्व में ही हुआ । सन् 1900 ई. से आज तक देश के विभिन्न प्रांतों में घरों-घरों में पड़े हस्तलिखित ग्रंथों की खोज एवं उसका इक्कीस भागों में त्रैवार्षिक विवरण प्रकाशित करते चलने का जो व्रत सभा ने आरंभ में लिया था उसका पालन आज तक निर्बाध रूप में करती चली आ रही है ।
यह सभा के ही सत्प्रयत्नों का सफल परिणाम रहा कि अंगरेजी, उर्दू और फारसी के उस जमाने में भी जबकि भारत पर ब्रिटिश सत्ता का शासन था और सर्वत्र अंगरेजी का बोलबाला था, तत्कालीन शासन द्वारा हिंदी को राजभाषा का दरजा दिया गया और सन् 1900 ई. से समस्त सरकारी कर्मचारी के लिये हिंदी जानना अनिवार्य कर दिया । इसमें स्वनामधन्य जिन महानुभावों का प्रत्यक्ष उद्योग काम कर रहा था उनमें स्व. महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की अहंभूमिका रही है । सभा की विभिन्न प्रवृत्तियों—जिनका विहंगम विवरण आगे दिया जा रहा है, के सहायक, प्रशंसक एवं उसकी प्रगति के शुभचिंतक महापुरुषों की सहज स्नेहशीलता तथा सहानुभूति सभा को मिलती रही है उनके नाम जहाँ तक बन पड़ा है, इस पुस्तिका के अंतिम कवर पृष्ठ पर द्रष्टव्य हैं ।
सभा की विभिन्न प्रवृत्तियाँ

(1) आर्यभाषा पुस्तकालय—अपनी स्थापना के 3 वर्षों के बाद सन् 1896 में सभा ने इस पुस्तकालय की स्थापना की जो हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है । जैसा कि पीछे कहा गया है कि हिंदी के पुजारी को इस हिंदी मंदिर में आए बिना उसका पूज्यपूजकत्व भाव पूरा नहीं होगा ठीक इसी प्रकार कोई भी हिंदी शोधार्थी अपना शोधग्रंथ उपस्थित करने के लिये इस पुस्तकालय का लाभ लिए बिना अपने उद्देश्य में सफल हो जायगा, यह संभव नहीं है । इसलिये आज भी इस पुस्तकालय का लाभ उठाने के लिये देश के विभिन्न विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के अतिरिक्त विदेश के विश्वविद्यालय के हिंदी अनुसंधित्सुओं का इसमें बराबर आगमन होता आ रहा है । दुर्लभ हस्तलेखों का भांडार यहाँ आज भी सुरक्षित है ।
(2)भारत कला भवन—प्राचीन मूर्तियों एवं चित्रों को ढूँढकर एक विशाल प्रदर्शनी इस भारत कला भवन में संगृहीत है । सभा ने अपने स्थान संकोच के कारण और तत्कालीन रायकृष्णदास की इच्छा के अनुकूल इस भारत कला भवन को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठित किया जहाँ आज भी देश और विदेश के पुरातत्वान्वेषी प्राचीन मूर्तियों के पर्यवेक्षक बराबर आया करते हैं ।
(3) सत्यज्ञान निकेतन—ज्वालापुर हरिद्वार में स्थिति सभा का यह सत्यज्ञान निकेतन पश्चिम भारत में हिंदी प्रचार के कार्य में अद्यावधि जुटा हुआ है । इसमें भी एक पुस्तकालय और स्वामी सत्यदेवजी परिव्राजक की समस्त कृत्तियाँ अनुसंधित्सुओं के लिये उपलब्ध रहती हैं ।
(4) प्रेमचंद स्मारक—विश्वविश्रुत कथाकार प्रेमचंद जिनको ‘उपन्यास सम्राट’ की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, कि जन्मग्राम लमही में सभा ने उनकी स्मृति में एक ‘प्रेमचंद स्मारक’ का निर्माण किया है । जिसमें प्रेमचंद की मूर्ति की स्थापना के अतिरिक्त एक पुस्तकालय और ग्रामीणों की सुविधा के लिये उसमें एक औषधालय भी चल रहा है । प्रतिवर्ष सभा उनके जन्म दिन 31 जुलाई को उनकी भव्य जयंती मनाती चली आ रही है ।
(5) नागरी मुद्रण—अपनी पुस्तकों का प्रकाशन सभा अपनी देख-रेख में कर सके और समय से उन्हें हिंदी जगत् को सौंप सके तदर्थ सन् 1956 में एक मुद्रणालय की स्थापना की जो आज भी अपने सामर्थ्य के अनुसार कार्य कर रहा है ।
(6) नवीन भवन—भारत सरकार के सहयोग से काशी में तो सभा के भवनों का विस्तार हो ही रहा है नई दिल्ली में उसकी एक शाखा स्थापित करने के लिये भूमि ले ली गई है और तदर्थ स्वीकृत अनुदान का प्रथम अंश 1 लाख रुपये भारत सरकार ने कृपापूर्वक प्रदान कर दिए हैं और कार्यारंभ की दिशा में प्रयत्न प्रारंभ हो गया है ।
संक्षेप में सभा की उक्त प्रवृत्तियों से आप परिचित हो सकें तदर्थ उसपर एक विहंगम दृष्टि से विचार किया गया । पीछे जिन महत्वपूर्ण ग्रंथों का नामोल्लेख किया गया उनमें हिंदी विश्वकोश के आरंभिक तीन पुनर्मुद्रित खंडों का और हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास के तीसरे और बारहवें खंड का प्रकाशोद्घटन एवं समापन गत दिनों 29 मार्च 1984 को नई दिल्ली में स्वर्गीया श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया । स्वर्गीया श्रीमती गाँधी का हिंदी प्रेम इसी से लक्षित होता है कि उन्होंने अपने भाषणों में जहाँ तहाँ हिंदी की प्रतिष्ठा के प्रति अपनी रुचि दिखाई । उनकी हिंदी के प्रति कही गई एक अनमोल वाणी का दर्शन कीजिए—
‘इतने बड़े देश में जहाँ इतनी भाषाएँ हैं, वहाँ देश की एकता के लिये आवश्यक है कि कोई भाषा ऐसी हो, जिसे सब बोल सकें, जो एक कड़ी की तरह सबको मिलाजुलाकर रख सके । इसलिये ‘हिंदी’ को बढ़ाना हम सबका काम है’ ।
इनके पूर्व स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी की प्रतिष्ठा के प्रति अपनी उन्मुक्त विचारधारा प्रकट करते हुए कहा—
‘हम जितनी जल्दी अंगरेजी के स्थान पर हिंदी को बिठा दे उतना ही अच्छा है । उसमें देर लगने से देश में और विदेशों में हमारी बदनामी होती है’ ।
कहने का तात्पर्य यह कि ब्रिटिश काल में अंगरेजी उर्दू और फारसी के उस वातावरण में डा. श्यामसुंदर दास प्रभृति सभा के संस्थापकों ने तत्कालीन कर्मवीरों के सहयोग साहाय्य से हिंदी की जिस छवि को दीपाशिखा की भाँति चमकाने में लगे थे उनके प्रयत्नों का ही परिणाम हुआ कि भारत के स्वतंत्र होते ही भारतीय संविधान में ‘हिंदी’ को देश की राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा उद्घोषित किया गया और उसकी अभिवृद्धि में उक्त तीनों संस्थापकों के अतिरिक्त बालगंगाधर तिलक, पं. मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, डा. राजेंद्रप्रसाद, बिनोवाभावे, राजगोपालाचारी आदि हिंदी के शुभचिंतकों ने प्राणपण लगा दिए । बालगंगाधर तिलक ने तो सभा में ही सर्वप्रथम घोषणा की कि ‘हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है’ ।
और अब जब देश की बागडोर भारत के प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी के हाथों में सौंपी गई तब से इन्होंने भी हिंदी के प्रति अपना अनुराग अपने परिवार की मंशा के अनुरूप रखा और उसके अभिवर्धन तथा सरकारी कार्यालयों, सचिवालयो एवं मंत्रालयों में हिंदी की प्रतिष्ठा करने, हिंदी में कामकाज होने के प्रति अपनी उत्कट इच्छा व्यक्त की । पिछले दिनों जब मैंने हिंदी के अप्रतिम साहित्यकार, सुधी समीक्षक की जन्मशती का स्मरण दिलाया और तत्संबंधी ग्रंथावलियों आदि के प्रकाशन की बात कही तब ये सहर्ष तैयार हो गए और इनके प्रकाशन में आर्थिक सहयोग का पूरा वचन दिया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, जिसका संक्षिप्त परिचय आगे के पृष्ठों पर दिया जा रहा है, का प्रकाशन भी सभा ने शुक्ल जी की इस जन्मशती के अवसर पर आरंभ कर दिया है और उसके कई खंड निकल चुके हैं ।

जिनका प्रकाशनोद्घाटन 5 अगस्त, 1985 को दिल्ली में श्री राजीव गाँधी ने करने की कृपापूर्वक स्वीकृति दे दी है । शुक्लजी के जो ग्रंथ आर्थिक संकोच के कारण इस अवसर पर नहीं निकल सके वे भी भारत सरकार के अनुदान तथा सभा के सहयोग से शीघ्र प्रकाशित कर दिए जायँगे और इस प्रकार सभा अपने एक यशस्वी लेखक, मूर्धन्य समीक्षक के प्रति अपना विनम्र अर्घ्य अर्पित करके संतुष्ट होगी । इस देहयष्टि में शरीर की इंद्रियाँ और मन दोनों हैं । शरीर की इंद्रियों की गड़बड़ी दूर करने का काम औषधशास्त्र करता है किंतु मन की गड़बड़ियों, उसके विकारों को परिनिष्ठित एवं सुसंस्कृत बनाकर उन्हें जनोपयोगी बनाने तथा देश और समाज में मंगल की स्थापना करने का काम साहित्य करता है । सभा ऐसी अनेक योजनाओं को अभी भी अपने उद्देश्य के अनुकूल चला रही है और चाहती है भारत सरकार, प्रांतीय सरकारें उसकी योजनाओं जैसे हिंदी विश्व साहित्य कोश, सर्वभाषा कोश एवं वर्तमान बढ़े हुए उद्योगों पर पुस्तकों के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान करे और हिंदी भांडार की श्रीवृद्धि में सभा की सहायिका बनें । इस प्रकार भारतेंदु युग के अनंतर हिंदी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं सबके नियमन नियंत्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है ।
नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
स्थापित : संवत् 1950 वि. : सन् 1893 ई.
संस्थापक
डा. श्यामसुंदरदास, श्री रामनारायण मिश्र, श्री ठा. शिवकुमारीसह, बालगंगाधर तिलक ने सर्वप्रथम यही घोषणा की कि ‘हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा ही’ ।
विशिष्ट सहयोगी :
सर्वश्री पं. मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, डा. राजेंद्रप्रसाद, विनावा भावे, राजगोपालाचारी, आचार्य नरेंद्रदेव, गोविंदवल्लभ पंत, संपूर्णानंद, दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, महावीरप्रसाद द्विवेदी, गौरीशंकर राधाकृष्ण ओझा, जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, रामचंद्र शुक्ल, राहु हीराचंद यन, डा. काशीप्रसाद जायसवाल, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, लसांवृत्या ‘गुलेरी’, रायबहादुर लज्जाशंकर झा, कामताप्रसाद गुरु, जयशंकर प्रसाद, चंद्रधरशर्मा दास, मैथिलीशरण गुप्त, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मणनारायण, रायकृष्णविद्यालंकार, डा. अमरनाथ झा, सुनीतकुमार चटर्जी, हजारीप्रसाद गर्दे, जयचंद दुलारे वाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत, शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह ‘द्विवेदी’, नंदरामप्रसाद त्रिपाठी, डा. भगवतशरण उपाध्याय, डा. ‘गोरखप्रसादनकर’, डा. र्धीरेंद्र वर्मा आदि आदि ।
स्वतंत्र भारत में संरक्षक :
पं. जवाहर लाल नेहरू, श्री लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गाँधी ।
मुख्य सेवाएँ—
लगभग 2000 ग्रंथों का प्रकाशन ।
सरस्वती पत्रिका का शुभारंभ (सन् 1900) और संपादन ।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1896 ई.) हिंदी शोध की सबसे प्राचीन और मान्य पत्रिका का प्रकाशन । सन् 1900 ई. से गाँव-गाँव में बिखरे हिंदी के हस्तलेखों की रिपोर्टों का सहस्त्रों पृष्ठों में प्रकाशन और उनका सबसे महत्तम संग्रह ।
संस्कृत के हस्तलेखों का विशाल संग्रह और 2500 पृष्ठों में विवरण प्रकाशित ।
हिंदी के प्रमाणिक व्याकरण की रचना । कामताप्रसाद गुरु का ‘हिंदी व्याकरण’
हिंदी साहित्य के प्रामाणिक इतिहास का प्रस्तुतीकरण । ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’—रामचंद्र शुक्ल ।

हिंदी में शीघ्रलिपि का आरंभ । प्रथम वर्ष के छात्र : श्री लालबहादुर शास्त्री, श्री टी. एन. सिह और श्री अलगूराय शास्त्री ।
विश्व में हिंदी के सबसे बड़े पुस्तकालय—आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना विज्ञान की पर्यायवाची शब्दावली का सर्वप्रथम भारतीय भाषाओं में प्रकाशन (सन् 1915-1931 तक) ।
उत्तर भारत के महान कला संग्रह-कला भवन का संयोजन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय को दान ।
संजय गाँधी अतिथि भवन का निर्माण, नागरी प्रचारिणी में भवनों का वहित निर्माण ।
हिंदी साहित्य संमेलन की संस्थापना (सन् 1910) ।
देवनागरी लिपि को कचहरियों में स्थापित करने का सफल प्रयत्न तथा राजभाषा हिंदी की स्थापना एवं अभिवृद्धि में अनन्य योगदान आदि आदि ।