राजभाषा और राजलिपि
सभा के प्रयत्न से, जिसमें उसे पं. मदनमोहन मालवीय का विशेष सहयोग प्राप्त था, सन् 1900 में उत्तर प्रदेश में नागरी लिपि के प्रयोग की आज्ञा प्रसारित की गई और शासकीय कर्मचारियों के लिये हिंदी और उर्दू दोनों का ही ज्ञान आवश्यक कर दिया गया ।
हस्तलिखित ग्रंथों की खोज
विभिन्न नगरों और ग्रामों में हस्तलिखित ग्रंथों की खोज के लिये सभा ने खोज विभाग की स्थापना का कार्य भी सन् 1900 में ही कर लिया था । उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सभा का खोज विभाग कार्यरत था । उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आज भी यह कार्य चल रहा है । इस खोज की त्रैवार्षिक रिपोर्टें नियमित रूप से छपती हैं जिनमें ज्ञात कवियों की अज्ञात रचनाएँ और अनेक अज्ञात कवियों का विवरण उपलब्ध होता रहता है । हिंदी के इतिहास के व्यवस्थित प्रणयन में इस प्रवृत्ति की उपादेयता स्वयंसिद्ध है ।

प्रकाशन
सभा का प्रकाशन विभाग हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक है । सभा ने हिंदी विश्वकोश, हिंदी शब्दसागर, हिंदी व्याकरण, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास और विभिन्न ग्रंथावलियों के अतिरिक्त अन्य अनेक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्व की ऐसी रचनाएँ प्रकाशित की हैं जो अनुपलब्ध थीं । प्रकाशन विभाग निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है ।

पत्र पत्रिकाएँ
हिंदी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सरस्वती’ के प्रकाशन एवं संपादन की व्यवस्था प्रारंभ में सभा ने ही की थी । त्रैमासिक ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ हिंदी की पहली शोध पत्रिका है और आज भी शोध पत्रिकाओं में सर्वश्रेष्ठ है । इसके अतिरिक्त सभा से ‘नागरी पत्रिका’ का मासिक प्रकाशन भी होता है । ‘हिंदी’, ‘विधि पत्रिका’ और ‘हिंदी रिव्यू’ नामक पत्रिकाएँ भी सभा ने प्रकाशित की थीं जो कालांतर में बंद हो गई ।
Events
सत्रारंभ
सास्त्र सुचिंतित पुनिपुनि देखिअ
संरक्षण
काशी राज
खुसरो की हिंदी
अजिल्द से पुनर्निर्मित
इंटर्नशिप

Over the decades, Nagari Pracharini Sabha has become a symbol of linguistic nationalism and cultural identity. Its historic role in nurturing the literary movement and advocating for Hindi as a national language continues to inspire scholars, writers, and enthusiasts across the world.
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हिंदी में तुलनात्मक समीक्षा के प्रबुद्ध प्रवर्तक
स्व. पं. पद्मसिंह शर्मा
हिंदी में तुलनात्मक समीक्षा का प्रारंभ करनेवाले प्रसिद्ध समीक्षक स्व. पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म फाल्गुन शुक्ल 12, सं. 1933 (सन् 1877 ई.) को हुआ था । 7 अप्रैल, 1932 ई. को एक असाध्य रोग ने उन्हें हिंदी जगत् से छीन लिया । उनके पिता स्व. चौधरी उमरावसिंह गाँव के मुखिया एवं जमींदार थे । अतः पद्मसिंह जी को शिक्षा की सारी सुविधाएँ उन्होंने घर पर उपलब्ध करा दी थीं । बाद में इटावा जाकर पद्मसिंह जी ने स्वामी दयानंद के शिष्य पं. भीष्मसेन वेदाचार्य से सन् 1894 ई. में अष्टाध्यायी का अध्ययन किया ।
इटावा में अध्ययन समाप्त करने के बाद ताजपुर स्टेट में पं. पद्मसिंह जी ने पं. जीवनराम शर्मा राजगुरु से लघुकौमुदी एवं काव्यशास्त्र का अध्ययन किया । लाहौर के ओरिएंटल कालेज में अध्ययन करते समय वे आर्यसमाजी विद्वान् पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ के निकट संपर्क में रहे । सन् 1897 ई. में जालंधर में उन्होंने पं. गंगाधर शास्त्री (स्वामी शुद्धबोध तीर्थ) से व्याकरण का विशेष अध्ययन किया । इसके बाद काशी आकर उन्होंने पं. काशीनाथ शास्त्री से दर्शन आदि का विस्तृत अध्ययन किया ।
स्वामी श्रद्धानंद के विशेष आग्रह पर गुरुकुल कांगड़ी में सन् 1904 से उन्होंने अध्यापन कार्य प्रारंभ किया । उनके लेखन का आरंभ हरिद्वार से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘सत्यवादी’ से हुआ । सन् 1908 ई. में वे ‘परोपकारी’ नामक पत्र के संपादक होकर अजमेर चले गए जहाँ उन्होंने ‘अनाथरक्षक’ का भी संपादन किया । उत्तर भारत में वे आर्यसमाज के प्रमुख प्रचारक भी रहे । सन् 1908 ई. में ही वे पुनः हरिद्वार चले गए जहाँ उन्होंने ज्वालापुर महाविद्यालय में अध्यापन एवं प्रबंध समिति के कार्य के अतिरिक्त ‘भारतोदय’ पत्र का संपादन भी किया । सन् 1917 ई. में पिता के निधन के कारण उनको बिजनौर जाकर जमींदारी सम्हालनी पड़ी और उनका शेष जीवन यहीं व्यतीत हुआ । श्रेष्ठ संपादक के रूप में इंदौर में महाराजा यशवंतराव के राज्याभिषेक के समय 500 रु. भेंट देकर आपको भी संमानित किया गया ।
पं. पद्मसिंह जी ने ‘साहित्य’ और ‘समालोचक’ पत्रों का संपादन भी किया था । अध्यापन कार्य के समय ‘बिहारी सतसई’ की ओर आप आकर्षित हुए । तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में आपको मौलाना आजाद, हाली और मौलाना शिबली से विशेष प्रेरणा मिली । ‘बिहारी की सतसई’ का प्रथम संस्करण सन् 1918 ई. में ज्ञानमंडल प्रेस, वाराणसी से प्रकाशित हुआ । सन् 1923 में इस ग्रंथ पर आपको 1200 रु. का मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ । सन् 1934 में आपके स्वर्गवास के पश्चात् ‘बिहारी की सतसई’ का मूल्यांकन एवं टीका से युक्त संशोधित चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ ।
पद्मसिंह जी के निधनोपरांत संपादकाचार्य पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनका जीवनचरित लिखा एवं उनके पत्रों का संपादन भी किया । ‘बिहारी की सतसई’ के अतिरिक्त उनके निबंध संग्रह ‘पद्मपराग’ का प्रथम भाग सन् 1929 ई. में प्रकाशित हुआ था । ‘हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी’ में उन्होंने भाषा समस्या पर विचार किया है । ‘प्रदीप मंजरी’ नामक एक ग्रंथ का संपादन भी शर्मा जी ने किया था ।
हिंदी की तुलनात्मक समीक्षा के विकास में स्व. पं. पद्मसिंह जी शर्मा का योगदान महत्वपूर्ण है । सन् 1909 की ‘सरस्वती’ में उनकी समीक्षा ‘बिहारी और फारसी कवि सादी की तुलनात्मक समीक्षा’ प्रकाशित हुई थी । ‘भिन्न भाषाओं के समानार्थी पद’, ‘संस्कृत और हिंदी कविता का बिंब-प्रति-बिंब भाव’, ‘भिन्न भाषाओं की कविता का बिंब-प्रति-बिंब भाव’ जैसे निबंध ‘सरस्वती’ में वर्षों प्रकाशित होते रहे । सतसई पर समीक्षा लिखकर आपने दिखाया कि बिहारी ने ‘गाथा सप्तशती’, ‘आर्या सप्तशती’ और ‘अमरुक शतक’ आदि से कितनी सामग्री ग्रहण की है और साथ ही भावापहरण से कितना मुक्त रहे हैं । जीवन में नैतिकतावादी होते हुए भी साहित्य के क्षेत्र में वे इसके आग्रही नहीं थे । साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में उन्होंने श्रृंगार के रसराजत्व को प्रतिष्ठापित किया । उनकी समीक्षा में लालित्य प्रवाह के साथ-साथ व्यंग्य विनोद का सौष्ठव भी विद्यमान है ।
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