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‘कविता क्या है’ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल: एक कालजयी निबंध की गाथा

एक

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध ‘कविता क्या है?’ उनके निबंध-संग्रह ‘चिंतामणि’ के पहले भाग में संकलित है. इस भाग में कुल पंद्रह निबंध हैं; जिनमें से दस मनुष्य के भावों पर केंद्रित हैं. इन निबंधों के शीर्षक बड़े दिलचस्प हैं—‘भाव या मनोविकार’, ‘उत्साह’, ‘श्रद्धा-भक्ति’, ‘करुणा’, ‘लज्जा और ग्लानि’, ‘लोभ और प्रीति’, ‘घृणा’, ‘ईर्ष्या’, ‘भय’ और ‘क्रोध’. बाक़ी पांच निबंध कवियों, कविताओं और काव्य-चिंतन पर एकाग्र हैं. इनमें ‘कविता क्या है ?’ सबसे लंबा—46 पृष्ठों का है.

पुस्तक का पहला निबंध ‘भाव या मनोविकार’ सबसे छोटा—5 पन्नों का है. ‘उत्साह’ 11, ‘श्रद्धा-भक्ति’ 27, ‘करुणा’ 12, ‘लज्जा और ग्लानि’ 13, ‘लोभ और प्रीति’ 28, ‘घृणा’ 10, ‘ईर्ष्या’ 17, ‘भय’ 8 और ‘क्रोध’ 10 पृष्ठों का है. ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ 9 पृष्ठों का, ‘तुलसी का भक्तिमार्ग’ 7, ‘मानस की धर्म-भूमि’ 6, ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ 14, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति-वैचित्र्यवाद’ 13 और ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ 30 पृष्ठों का है.

लेकिन ‘कविता क्या है?’ की कहानी इंडियन प्रेस द्वारा 1939 में ‘चिंतामणि’ के प्रथम प्रकाशन के साथ शुरू नहीं होती; बल्कि यहां आकर पूरी हो जाती है. हम लोग वस्तुओं, व्यापारों और व्यक्तियों को प्रायः उनके अंत से पहचानते हैं, क्योंकि हमारा ध्यान परिणति पर रहता है; प्रक्रिया पर नहीं; जबकि एक निबंध के तौर पर ‘कविता क्या है?’ की कहानी किसी अरण्य की जीवनगाथा जैसी नैसर्गिक, सुदीर्घ, विस्तृत और चराचर की उपस्थिति से आंदोलित है. एक अर्थ में यह निबंध ‘कविता का अरण्य’ है.

दो

इस निबंध का पहला प्रारूप आज से 117 साल पहले, 1908 की सर्दियों में पूरा हुआ था. तब रामचंद्र शुक्ल महज़ 24 साल के थे और नए-नए बनारस आए थे. नौजवान आलोचक ने 21 दिसंबर, 1908 को सत्रह फुलस्केप पृष्ठों में सुलिखित निबंध, उम्र में स्वयं से बीस बरस बड़े, ‘सरस्वती’ के बीहड़ संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को भेजा, जो प्रभूत संशोधनों के साथ अप्रैल 1909 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ. लेख के साथ द्विवेदीजी को संबोधित 9 पंक्तियों का पत्र भी था, जिसमें शुक्लजी ने लिखा था:

अच्छी कविता बनाने के लिए अच्छी कविता के लिए रूचि उत्पन्न होना भी ज़रूरी है. और-और भाषाओँ में कविता के अर्थ और प्रयोजन आदि के विषय में निबंध निकला करते हैं जिससे लोगों की रूचि परिमार्जित होती रहती है, पर हमारी हिंदी में इसका अभाव है.

त्वदीय, रामचंद्र शुक्ल

पता: ‘Ramchandra Shukla C/O T. Ram Phal Pande, Shiwala Ghat; Banaras city’

इसके चार दिन बाद शुक्लजी ने काशी से ही 25 दिसंबर, 1908 को एक और पत्र लिखा. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के मन में लेख में प्रयुक्त ‘ध्वनि माधुर्य’ शब्द के अर्थ को लेकर कुछ प्रश्न थे. उन्होंने शुक्लजी से स्पष्टीकरण चाहा होगा. शुक्ल लिखते हैं—

‘ध्वनि माधुर्य’ से मेरा मतलब नाद (Sound) के सौंदर्य, व चमत्कार से है जो अनुप्रास आदि शब्दालंकारों में होता है.’

हालांकि शुक्लजी के स्पष्टीकरण के बावजूद महावीरप्रसाद द्विवेदी ‘ध्वनि माधुर्य’ को स्वीकार न कर सके. उन्होंने लेख में इसे बदलकर ‘श्रुतिसुखदता’ कर दिया. अभाग्यवश, आजकल प्रकाशक इसे ‘श्रुतिसुखदाता’ छाप रहे हैं.

बहरहाल, इसी पत्र में शुक्लजी द्विवेदीजी से एक और निवेदन करते हैं—

लेख में जो-जो त्रुटियां रह गई हैं उन्हें सुधार लीजिएगा. बड़ा अनुग्रह होगा. भाषा जहां पर क्लिष्ट हो गई है वहां सरल हो जाय तो बहुत ही अच्छी बात है.

ऐसा ही एक पत्र शुक्लजी ने रमई पट्टी, मिर्ज़ापुर से 19 मार्च, 1907 को लिखा था. वह चिठ्ठी भी द्विवेदीजी को संबोधित है. चिठ्ठी के साथ शुक्लजी ने अपनी एक लंबी कविता ‘बसंत पथिक’ प्रकाशनार्थ भेजी थी. तीन पंक्तियों का वह पत्र यों है—

पूज्यवर, प्रणाम!
‘बसंत पथिक’ जाता है. इसको ‘सरस्वती’ में कहीं शरण दीजिए. आशा है आप की मेरे ऊपर वैसी ही कृपा बनी होगी.
त्वदीय
रामचंद्र शुक्ल

1903 में द्विवेदीजी ‘सरस्वती’ के संपादक बनाए गए. उसी वर्ष शुक्लजी का निबंध ‘साहित्य’ वहां प्रकाशित हुआ. यह निबंध मौलिक नहीं था, लेकिन शब्दशः अनुवाद भी नहीं था. यह अंग्रेज़ चिंतक John Henry Cardinal Newman द्वारा लिखे The Idea of a University नामक निबंध में शामिल साहित्य-विषयक विचारों की पुनर्रचना करता था; उन्हें भारतीय, या कहें तो हिंदी समाज के दृष्टिकोण से हिंदी पाठक के लिये प्रस्तुत करता था. उस निबंध के साथ भेजा गया पत्र इस प्रकार है—

The Editor ‘Saraswati’
Jhansi
Sir,
The following is a free translation of ‘Literature’ contained in the Newman’s Idea of a University. I had to make some necessary alterations here & there in order to bring it within the intelligence of Hindi readers.
I hope it will be acceptable to you.
An early reply will greatly oblige.
Yours truly
Ramchandra Shukla
7 City Road, Allahabad
05.08.03

पत्र में उल्लिखित ‘free translation’ पद ध्यान देने योग्य है. स्पष्ट है कि ‘साहित्य’ शीर्षक यह निबंध निरा अनुवाद नहीं है. इसमें मूल निबंध से भिन्न और कुछ भी है. हिंदी पाठक की चित्तवृत्ति के भूगोल में ले आने के लिए लेखक को मूल में ‘आवश्यक तब्दीलियां’ करनी पड़ी हैं.

यों, बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के दरम्यान हमारी सभ्यता की सबसे ताज़ा और निर्माणाधीन भाषा—‘हिंदी’ में ‘निबंध’ की चौहद्दी के भीतर उस विशिष्ट गद्य-विधा का जन्म होता है जो न मौलिक है, न अमौलिक. अनुवाद है भी; और नहीं भी है. Translation नहीं; ‘free translation’ है. जिसकी वस्तु अंगरेज़ी है, लेकिन ‘भारतीय’ दृष्टि से अनूदित और संपादित. हिंदी पाठकों की चित्तवृत्ति में ले आने के लिए लेखकों के एक समूह ने जिसे भीतर ही भीतर बहुत दूर तक बदल दिया है.

तीन

बतौर विचारक आचार्य शुक्ल की यात्रा को समझने के लिये ऐसा ही एक अन्य पड़ाव है, उनकी पुस्तक ‘आदर्श जीवन’ (प्रथम संस्करण, 1914; प्रकाशक : नागरीप्रचारिणी सभा). इस पुस्तक में उन्होंने उदाहरण के तौर पर संस्कृत और देशभाषा की अनेक कविताएं उद्धृत की हैं; जो ख़ासी शिक्षाप्रद और मनोरंजक हैं. एक स्थान पर नौजवानों को उत्साह के साथ धैर्य बनाए रखने का पाठ पढ़ाते हुए शुक्लजी लिखते हैं कि ‘अच्छी तरह नकुल सहदेव बनना बुरी तरह अर्जुन बनने से अच्छा है. बढ़िया जूता बनाना. जो पैर में ठीक आवे, भद्दा पद्य बनाने से ज़्यादा इज़्ज़त की बात है. पुरानी कहावत है— धीरज धरै सो उतरै पारा / नाहिं तो दौरि मुवै मँझधारा

इस पुस्तक की भूमिका में आचार्य शुक्ल लिखते हैं—

जिस पुस्तक के आधार पर यह पुस्तक लिखी गई है, उसका नाम है ‘Plain Living and High Thinking’ और वह अंगरेज़ी की उन पुस्तकों में से है जिनका उद्देश्य युवा पुरुषों के अंतःकरण में उत्तम संस्कार उत्पन्न करना है…अंगरेज़ी पुस्तक में दृष्टांत रूप में योरप के प्रसिद्ध पुरुषों के वृत्तांत आए हैं, वहां वहां यथासंभव भारतीय पुरुषों के दृष्टांत दिए गए हैं. पुस्तक को इस देश की रीति नीति के अनुकूल करने के लिए और भी बहुत सी बातें घटाई बढ़ाई गई हैं.

 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल. (चित्र साभार: शीतल वर्मा ; स्वत्वाधिकार: नागरीप्रचारिणी सभा)

शुक्लजी के कथन के आलोक में यह साफ़ है कि यह पुस्तक महज़ अनुवाद नहीं है; अंगरेज़ी की एक पुस्तक के आधार पर लिखी गई है. अंगरेज़ी की इस पुस्तक के शीर्षक ने हिंदी में उस महान् मुहावरे को जन्म दिया; जिसके शब्द हैं ‘सादा जीवन उच्च विचार’. सन् 1897 में पहली बार प्रकाशित हुई अंगरेज़ी की इस प्रसिद्द किताब के लेखक थे Theodore Thornton Munger. संसार की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद प्रकाशित हुए.

सत्रह साल बाद 1914 में यह पुस्तक हिंदी में प्रकाशित हुई. अब इसका नाम हो गया ‘आदर्श जीवन’. हिंदी-पुस्तक अंग्रेज़ी मज़मून का हूबहू—‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’—अनुवाद नहीं; बल्कि, लगभग स्वतंत्र पुस्तक थी.

आचार्य शुक्ल की पुस्तक ‘आदर्श जीवन’ में शामिल कुछ निबंध यू.पी. बोर्ड की कक्षा 8 और कक्षा 10 की पाठ्य-पुस्तकों में प्रायः पिछले पचास-साठ बरस से बदले हुए नाम के साथ शामिल हैं. हम सबने उन निबंधों को आचार्य शुक्ल के मौलिक निबंध मानकर पढ़ा क्योंकि पाठ्य-पुस्तक हमें यह नहीं बताती कि ये किस विदेशी ग्रंथ को आधार बनाकर लिखे गए हैं. कक्षा 8 की पुस्तक में शामिल निबंध का नाम है ‘आत्मनिर्भरता’ और कक्षा 10 वाले निबंध का ‘मित्रता’. हर साल बोर्ड-परीक्षा में मित्रता वाले पाठ से ज़रूर सवाल पूछे जाते हैं.

भोर में उठकर आचार्य शुक्ल की जीवनी के साथ ‘मित्रता’ शीर्षक पाठ के विभिन्न अवतरण मैंने भी रटे. आचार्य शुक्ल की वह पुनर्रचना—पुस्तक में जिसका नाम है ‘सांसारिक जीवन’; और जिसमें सरस-प्रांजल भाषा में मित्र और मित्रता का गहन विश्लेषण किया गया है—पूरे संसार की निगाह में उनका मौलिक निबंध है; और पूरा संसार उसे ‘मित्रता’ के ही नाम से पढ़ता-जानता आया है.

चार

हम ‘कविता क्या है?’ की ओर लौटें. इसके बाद शुरू होता है लेख में प्रभूत संशोधनों का सिलसिला. द्विवेदीजी के अंतःकरण में खड़ी बोली की सरलता, स्वच्छता, स्पष्टता और आधुनिकता के प्रति ज़बर्दस्त आग्रह था. अकारण नहीं कि आधुनिक मूर्धन्यों में भारतेंदु के बाद उन्हीं का नाम आता है और हिंदी-संसार आधुनिक काल के जिस उप युग को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जानता-मानता है, उसके ठीक बाद पड़ने वाली कालावधि को ‘द्विवेदी युग’ कहा जाता है.

द्विवेदीजी व्यक्ति से युग में ऐसे ही नहीं बदल गए थे. विपुल लेखन-शक्ति के साथ उनमें अपार संपादकीय क्षमता भी थी. वह किसी अज्ञातवयकुलशील युवा लेखक के मज़मून पर घंटों, दिनों, हफ़्तों और महीनों अथक काम करते थे. क्या पद्य, क्या गद्य—दोनों में उनकी गति समान थी. उन्होंने 1903 से 1920 तक ‘सरस्वती’ का संपादन किया और इन सत्रह वर्षों में बहुत-सी कालजयी रचनाओं को पत्रिका के पृष्ठों पर प्रकाशित किया. जो रचनाएं उनकी संपादकीय दृष्टि के साथ अनुकूलित नहीं हो सकीं, ऐसी कालजयी रचनाओं को नहीं भी छापा.

वह आधुनिक हिंदी के पहले और संभवतः आख़िरी अनुशासक थे. उन्होंने नेपथ्य में रहकर हिंदी को आधुनिक बनाने का ऐतिहासिक अभियान चलाया. इस अग्रगामी अभियान के फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में सक्षम नए लेखक तैयार हुए. आचार्य रामचंद्र शुक्ल इन्हीं लेखकों की अगली पंक्ति में थे. अब, जब किसी लेखक के हस्तलेख पर ‘सरस्वती’ पादक महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा किए गए संशोधनों को हूबहू प्रकाशित करके नागरीप्रचारिणी सभा ने पुस्तक-प्रकाशन की नई प्रविधि का समारंभ किया है, एक युग-निर्माता संपादक के रूप में आचार्य द्विवेदी महज़ मिथक नहीं रहे, वस्तुतथ्य (Matter of fact) बन गए हैं—वे सिर्फ़ आचार्य शुक्ल या युगीन लेखकों के नहीं; हमारे भी संपादक हो गए हैं.

बहरहाल, हम पुनः उस निबंध की बात करें, जिसका नाम है ‘कविता क्या है?’ यह निबंध 1908 में शुरू हुआ, इसका पहला संस्करण 1909 में प्रकाशित हुआ और अंतिम परिनिष्ठित प्रारूप आचार्य शुक्ल के निबंध-संग्रह ‘विचार-वीथी’ (जून, 1930; अग्रवाल प्रेस, वाराणसी कैंट) में प्रकाशित हुआ. आगे चलकर यही प्रारूप ‘चिंतामणि’ (पहला भाग, प्रथम संस्करण, फ़रवरी 1939; इंडियन प्रेस, प्रयाग) में प्रकाशित हुआ और ‘चिंतामणि’ के विभिन्न संस्करणों में आज तक छपता और पढ़ा-पढ़ाया जाता है. यह प्रारूप शुक्लजी की आलोचना-पुस्तक ‘रस-मीमांसा’ (संपादक : विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, प्रथम संस्करण, दिसंबर 1949; नागरीप्रचारिणी सभा, काशी) में ‘काव्य’ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत विभिन्न उपशीर्षकों में भी प्रकाशित है.

महावीर प्रसाद द्विवेदी. (चित्र साभार: विनायक दहिया; स्वत्वाधिकार: नागरीप्रचारिणी सभा)

इसी निबंध का अंतिम से पहले वाला प्रारूप 1921 में नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित निबंध-संग्रह ‘हिंदी-निबंधमाला’ (दूसरा भाग) में प्रकाशित हुआ था. यह प्रारूप बहुत लोकप्रिय हुआ और बाबू श्यामसुंदरदास जैसे साहित्यिकों ने इसके अनेक लंबे-लंबे अंशों को उद्धृत करके अपने मज़मून तैयार किए.

शुक्लजी ने इसे लिखने में कुल 22 वर्ष लगाए—बार-बार इसे सुधारा, शोधित और संपादित किया. बढ़ाया. समकालीन लेखन के लिए यह एक विस्मयजनक सचाई है कि एक लेखक अपने एक निबंध को बाइस साल तक लिखता रहा. लेकिन यह सचाई का समग्र चेहरा नहीं, महज़ एक पहलू है.

पांच

1908 से 1930 के बीच की इस ऐतिहासिक अवधि में शुक्लजी और उनके युग ने भाषा-निर्माण, साहित्य-रचना और ज्ञानोत्पादन की दिशा में अकल्पनीय दूरियां तय कर लीं. उन दो दशकों को हिंदी के स्वर्णिम युगों में गिना जा सकता है. स्वयं आचार्य शुक्ल ने इसी कालखंड में कोशकार, अनुवादक, संपादक, कवि, आलोचक, निबंधकार और साहित्येतिहासकार के रूप में सिद्धि प्राप्त की.

‘हिंदी शब्दसागर’, जायसी, तुलसी, सूर की ग्रंथावलियों और ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ का संपादन; ‘आदर्श जीवन’, ‘शशांक’, ‘बुद्धचरित’ जैसे अनुवाद; ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ जैसी सुशोधित-सुशिल्पित-सुव्यवस्थित पुस्तक और मनोवेगों पर एकाग्र निबंध—जिनके माध्यम से शुक्लजी ने अपनी आलोचना के पद खोजे और परिभाषित किए—सब इसी कालावधि की रचनाएं हैं.

फिर भी, इतना तय है कि बतौर लेखक शुक्लजी का विधिवत आरंभ अप्रैल 1909 की ‘सरस्वती’ में ‘कविता क्या है?’ के प्रथम प्रकाशन के साथ हुआ. इसके पहले भी शुक्लजी लिख रहे थे—कविताओं के साथ-साथ ‘कल्पना का आनंद’ और ‘साहित्य’ जैसी कुछ अनूदित-रूपांतरित गद्य रचनाएं ‘सरस्वती’ में भी प्रकाशित हो चुकी थीं. मिर्ज़ापुर में रहते हुए वे लेखन के साथ-साथ बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ की ‘आनंद कादंबिनी’ में संपादकीय दायित्वों का निर्वहन भी कर रहे थे. लेकिन इतना ठोस काम—और बदले में इतनी अचूक संपादकीय रैगिंग—ये दोनों अनुभव उनके निमित्त पहली बार घट रहे थे.

 इस निबंध का पहला वाक्य है : ‘कविता मनुष्यता की संरक्षिणी है.’ द्विवेदीजी उसे यों संशोधित कर देते हैं : ‘कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है.’ आगे शुक्लजी लिखते हैं : ‘कविता मनोवेगों को उभाड़ने की एक युक्ति है.’ द्विवेदीजी इसे बदल देते हैं: ‘कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है.’ शुक्लजी लिखते हैं: ‘कार्य के लिए मन ही हमको उसकाता है.’ द्विवेदीजी उसे परिमार्जित करके ऐसा बना देते हैं: ‘काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है.’

‘मनोविकार’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना के बीज शब्दों में से एक है. शुक्लजी के निबंध में संशोधन के निमित्त इस शब्द को ‘क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान’ आदि के नामकरण के लिये पहली बार द्विवेदीजी ही इस्तेमाल में ले आते हैं. शुक्लजी का वाक्य इस प्रकार है—

‘जिस ने लोभ के आगे क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सब को दबा दिया है….’
द्विवेदीजी उक्त वाक्य में दो संशोधन करते हैं—‘आगे’ के स्थान पर ‘वशीभूत होकर’; और ‘सब’ के स्थान पर ‘मनोविकारों’—और वाक्य ऐसा बन जाता है:
‘जिस ने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है….’

यह दिसंबर 1908 का वाक़या है. ‘मनोविकार’ इसके पहले शुक्लजी के यहां नहीं आया था. उन्होंने तत्काल इस शब्द को अपने वाङ्गमय में शामिल कर लिया और 1914 से ‘मनोविकारों का विकाश’ शीर्षक कालजयी निबंधमाला की रचना आरंभ की. ‘विकास’ की बजाय ‘विकाश’ शब्द का प्रयोग अब बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है; लेकिन उस समय यही प्रचलन में था. आगे चलकर शुक्लजी ने भी इसे बदलकर ‘विकास’ कर लिया.

इस संबंध में मूर्धन्य आलोचक वागीश शुक्ल के अनुसार— ‘वस्तुतः विकाश एक स्वतंत्र शब्द है जो उदाहरण के लिये महाकवि भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ (15 से 52) में चार बार प्रयुक्त हुआ है और जिसके कई अर्थों में ‘विस्तार’ भी है जिसे ‘विकास’ का समानार्थी मानते हुए शुक्लजी ने यहां इस्तेमाल किया. हालांकि आगे चलकर उन्होंने ‘विकास’ ही लिखा है.’

आगे वागीशजी लिखते हैं—

आचार्य द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के ‘विकाश’ को परिवर्तित नहीं किया तो इसका कारण है. तत्कालीन हिंदी लेखक संस्कृत से शब्द लेने के प्रति उत्साहित थे और उनका एक आग्रह उच्चारण और लेखन में सामंजस्य बिठाने का भी था जिसके चलते हमें उस समय की हिंदी में ‘सक्ता’ और ‘कर्ना’ जैसी वर्तनियाँ दीखती हैं. मानक हिंदी अभी बन रही थी—वह ब्रज के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई थी, उर्दू वर्तनी का भी संस्कार वर्तमान था, और संस्कृत शब्द-संपदा के प्रति लालसा भी थी.

वहीं, ‘हिंदी शब्दसागर’ में ‘विकाश’ के अनेक अर्थ दिए गए हैं; जो इस प्रकार हैं—

‘प्रकाश’, ‘प्रसार’/ ‘फैलाव’/ ‘विस्तार’/ ‘वृद्धि’, ‘आकाश’, ‘विषम गति’ या ‘सुस्पष्ट पद्धति’, ‘प्रस्फुटन’/ ‘खिलना’, ‘एक काव्यालंकार जिसमें किसी वस्तु का बिना निज का आधार छोड़े अत्यंत विकसित होना वर्णन किया जाता है’, ‘किसी वस्तु की वृद्धि के लिये उसके रूप आदि में उत्तरोत्तर परिवर्तन होना’, ‘प्रदर्शन’/ ‘प्रकटीकरण’, ‘दिखलावा’, ‘हर्ष’/ ‘आनंद’, ‘उत्सुकता’/ ‘प्रबल उत्कंठा’, ‘एकांत स्थान’, ‘एकाकीपन’.

‘मनोविकारों का विकाश’ शीर्षक निबंधमाला के निबंध अलग-अलग अध्यायों के रूप में स्वयं शुक्लजी के संपादन में ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ में छपे और किंचित् संशोधनों-परिवर्द्धनों के साथ पहले ‘विचार-वीथी’; 1930 और कुछ समय बाद ‘चिंतामणि’; 1939 के पहले भाग में प्रकाशित होकर हिंदी की निधि बन गए. हम पहले कह आए हैं कि ‘चिंतामणि’ का पहला भाग तब से आज तक प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल है.

हालांकि ‘मनोविकार’ शब्द के प्रयोग का इतिहास यहीं आकर संपन्न नहीं हो जाता; बल्कि ‘कविता क्या है?’ शीर्षक इसी निबंध के चौथे और अंतिम प्रारूप तक आते-आते वह ‘भाव’ बन जाता है. उसका समग्र विकास-क्रम यों समझिए—1908 के पहले प्रारूप में ‘सब’; द्विवेदीजी द्वारा संशोधित-संपादित और ‘सरस्वती’ के अप्रैल 1909 अंक में प्रकाशित दूसरे प्रारूप में ‘मनोविकार’; 1921 में निबंध-संग्रह ‘हिंदी निबंधमाला’ (दूसरा भाग; प्रकाशक : नागरीप्रचारिणी सभा) में प्रकाशित तीसरे प्रारूप में भी ‘मनोविकार’ और चिंतामणि के पहले भाग (1939; प्रकाशक : इंडियन प्रेस; प्रयाग) में प्रकाशित आख़िरी प्रारूप में ‘भाव’.

जब ‘मनोविकार’ इतना स्पृहणीय था तो शुक्ल ‘भाव’ की ओर क्यों मुड़ गए? विद्वान आलोचक वागीश शुक्ल के पास इसका उत्तर है—

‘मनोविकार’ की जगह ‘भाव’ का चुनाव करने के पीछे आचार्य शुक्ल का कारण यह है कि वे अपनी इस विचार-यात्रा को भारतीय काव्यशास्त्र के रस-सिद्धांत से समंजस करना चाहते थे जिसमें ‘भाव’ एक पारिभाषिक शब्द है. इसका परिपाक उनकी पुस्तक रस-मीमांसा में आया है जिसे उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र के संपादन में नागरीप्रचारिणी सभा ने उनके देहांत के बाद प्रकाशित किया. ‘भाव’ की जगह ‘चित्तवृत्ति’ रख देने से यही केंद्रीयता उनके ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भी पाई जायेगी.’

छह

‘कविता क्या है?’ के सत्रह पन्नों के पहले प्रारूप में कई सैकड़ा संशोधन हैं. उन संशोधनों का बहुआयामी विश्लेषण इस निबंध का विषय नहीं है; लेकिन यह स्पष्ट है कि नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा इनके पुनर्प्रकाशन के बाद आलोचना की अनेक मूल्यवान अंतर्दृष्टियां और साहित्येतिहास की अँधेरी गलियां उजागर हुई हैं. ‘कविता क्या है?’ शीर्षक इस सद्यःप्रकाशित पुस्तक में उक्त निबंध के सभी प्रारूपों के साथ शुक्लजी के हस्तलेख और उस पर द्विवेदीजी के संशोधनों का आलोचनात्मक संस्करण भी है; जिसमें ये सभी सुधार-परिष्कार देखे-पढ़े जा सकते हैं.

‘कविता क्या है?’ शीर्षक निबंध एक साक्ष्य है, जो यौवन की कुशाग्रता से आरंभ होकर 22 साल की तपस्या, चार मज़मूनों और बार-बार लिखने-मिटाने, सोचे हुए को फिर से सोचने और अपनी ही धारणाओं पर पुनर्विचार करने के विलक्षण अभ्यास से गुज़रकर साहित्येतिहास के अनमोल दस्तावेज़ में बदला. लेखन एक सामूहिक प्रयत्न है और लेखक के लिए अनिवार्य एकांत अनेक उपस्थितियों, समूहों, समयों, प्रयत्नों, सफलताओं और असफलताओं से मिलकर संपूर्ण होता है—इस धारणा के सत्यापन के लिए हिंदी साहित्य के इन मूर्धन्यों की आपसदारी से बढ़कर भला और कौन सा साक्ष्य चाहिए.

(नागरीप्रचारिणी सभा ने हाल ही में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मशहूर निबंध ‘कविता क्या है?’ के चार मज़मूनों को एक जिल्द में प्रकाशित किया है. पुस्तक में आचार्य शुक्ल का मूल हस्तलेख और उस हस्तलेख पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा किए गए संशोधन भी प्रकाशित हैं.)

(कवि-गद्यकार व्योमेश शुक्ल इन दिनों नागरीप्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री हैं.)